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लेमनग्रास अथवा नींबू घास

लेमनग्रास अथवा नींबू घास

लेमनग्रास अथवा नीबू घास, जिसका वैज्ञानिक नाम "सिम्बोपोगान फ्लेक्सुओसस" ;ब्लउइवचवहवद थ्समगनेवेनेद्ध है, सम्पूर्ण भारतवर्ष में पायी जाती है। इसे चायना ग्रास, पूर्वी भारतीय नींबू घास, मालाबार घास अथवा कोचीन घास के नाम से भी जाना जाता है। इनकी पत्तियों में एक मधुर तीक्ष्ण गंध होती है जिन्हे चाय में डालकर उबाल कर पीने से ताजगी तो मिलती ही है, साथ ही सर्दी आदि से राहत भी मिलती है। तुलसी की तरह अधिकांश भारतीय परिवारों में इसे घरेलू स्तर पर लगाने की परम्परा है। देश के कई भागो में इसकी व्यवसायिक स्तर पर खेती भी हो रही है। वर्तमान में इसकी विधिवत खेती केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आसाम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश एंव महाराष्ट्र राज्यों में हो रही है।

नींबू घास की व्यवसायिक खेती इसके तेल की प्राप्ति हेतु की जाती है। तेल इसकी पत्तियों को आसवित करके निकाला जाता है। इसके तेल का मुख्य घटक सिट्रल होता है। नीबू घास के तेल में 80 से 90 प्रतिशत तक सिट्रल पाया जात है। सिट्रल नामक तत्व की उपस्थित के कारण ही नीबू घास के तेल मेंसे एक नींबू जैसी सुगन्ध आती है। सम्भवतः इसी नीबू जैसी सुगन्ध के कारण ही इस घास का नाम नींबू घास पड़ा होगा।
लेमन ग्रास के तेल के मुख्य उपयोग:
नींबू घास के तेल के अनेक उपयोग है। इसके तेल मे उपस्थित सिट्रल से अल्फा आयोनोन तथा बीटा आयोनोन तैयार किए जाते है। बीटा आयोनोन को आगे संश्लेषित करके ‘‘बिटामिन ए’’ तैयार किया जाता है जिसका विभिन्न दवाइयों के निर्माण मे काफी अधिक उपयोग होता है। एल्फा आयोनोन से गंध द्रव्य एवं अन्य कई सुगंध रसायन संश्लेषित किये जाते है। मुख्यतः इसका उपयोग उच्च कोटि के इत्रों के उत्पादन, विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधनो, सौन्दर्य सामग्रियों तथा साबुनों के उत्पादन में किया जाता है। अधिकांशतः ‘‘नीबू की खुशबू’’ तथा ‘‘नींबू की ताजगी’’ वाले साबुनो का मुख्य घटक सिट्रल ही होता है। विभिन्न उत्पादों में लेमनग्रास आयल का उपयोग निरंतर बढता जा रहा है। इस कारण इसकी न केवल देशीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मांग निरंतर बढ रही है।
लेमनग्रास की खेती की विधि:
भूमि एवं जलवायु: नींबू घास की खेती के लिए ऊष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है। ऐसे क्षेत्र जहां की जलवायु गर्म तथा आर्द्र हो, जहां पर्याप्त धूप पड़ती होतथा जहां वर्षा 200 से 250 सेमी तक सुवितरित वर्षा हो अथवा सिंचाई के पर्याप्त साधन हो, वे इसकी खेती के लिए आदर्श होते है। यद्यपि यह लेटेराइट मिट्यिों, कम वर्षा वाले, कम उपजाऊ तथा बारानी क्षेत्रों में भी उपजाई जा सकती है। परन्तु यदि परिस्थितिया अपेक्षकृत ज्यादा अनुकूल हो, भूमि उपजाऊ तथा पानी की व्यवस्था पर्याप्त हो, तो बारानी क्षेत्रों के अपेक्षा इन क्षे़त्रों में उपज की मात्रा काफी अधिक बढ़ जायेगी। उदाहरणार्थ उपजाऊ भूमियों में इसकी वर्ष भर में पांच फसलें ली जा सकती है, जबकि अपेक्षाकृत कम उपजाऊ तथा बारानी क्षेत्रों में वर्ष भर में दो से तीन फसलें ही ली जा सकेगी। रेतीली तथा लाल मिट्यिो में इसकी खेती करने के लिए पर्याप्त खाद की आवश्यकता होगी। ऐसे क्षेत्र जहां जल भराव संभावना हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही माने जाते
भूमि की तैयारी:
प्रायः एक बार लगा देने के बाद नींबू घास की फसल पांच वर्ष तक ली जा सकती है। अतः फसल की बिजाई से पूर्व आवश्यक है कि खेत की अच्छी तरह से जुताई की जाए। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से आड़ा-तिरक्षा (क्रास) जुताई करनी चाहिए। मिट्टी को दीमक आदि के प्रकोप से मुक्त रखने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि आखिरी जुताई के समय 5 प्रतिशत बी0एच0सी0 पाउडर 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दिया जाए। इसके उपरान्त पाटा चलाकर खेत को समतल करना चाहियें।
खाद की आवश्यकता:
अच्छी उपज के लिए खेत में पर्याप्त खाद डाला जाना लाभकारी होता है। यदि खेत में गोबर की सड़ी हुई खाद अथवा कम्पोस्ट खाद डाली जाए तो यह सर्वाधिक उपयुक्त होगा गोबर की यह खाद एक तो खेत तैयार करते समय खेत में मिला दी जानी चाहिए, दूसरे इसकी एक खुराक फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत दे दिया जाना चाहिये। फसल की कटाई के उपरांत यह इस प्रकारदिया जाना चाहिए कि खाद पौधों की जड़ो के पास ही डाले। गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट की मात्रा खेत तैयार करते समय 10 टन प्रति एकड़ डाली जाना उपयुक्त हागा। जहां तक रासायनिक खादों के प्रयोग प्रश्न है तो औसतन 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 16 किग्रा फासफोरस तथा 16 किग्रा पोटाश प्रति एकड़ डाले जाने की संतुति इस फसल के लिए की जाती है। इनमें से संपूर्ण फासफोरस, पोटास, तथा नाइट्रोजन का 1/3 भाग खेत तैयार करते समय ही डाल दिया जाना चाहिए जबकि नाइट्रोजन के शेष मात्रा प्रति दो माह मंे अथवा फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत डाले जाने चाहियें।
लेमनग्रास की रोपण सामग्री:
लेमनग्रास की बिजाई स्लिप से ही की जाती है। यह विधि सर्वाधिक उपयोगी, लाभकारी तथा सुविधाजनक भी है। स्लिपे विजाई करने हेतु सर्वप्रथम लेमनग्रास के पुराने पूर्णतयाविकसित पौधों/जुट्टो को उखाड़ कर उनके साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़ो को काट लिया जात है। तदोपरान्त इन जुट्टो मेंसेएक एक स्लिप को अलग कर लिया जाता है। यही स्लिप्स लेमनग्रास के प्लांटिग मेटेरियाल के रूप में प्रयुक्त की जाती है। प्रायः एक एकड़ के क्षेत्र में लगभग 15000 स्लिप्स की आवश्यकता होती है। एक एकड में कितने पौधे/स्लिप्स लगेगी यह मुख्यतः भूमि की उपजाऊ शक्ति तथा कई अन्य कारको पर निर्भर करता हैं। वैसे पौधे से पौधे के माध्यम 2 ग 2 फुट अथवा 1.5 ग 2 की दूरी काफी उपयुक्त मानी जाती है। इस मानक से एक एकड़ में लगभग 12000 से 15000 पौधे लगाए जाते है। इसकी कीमत 50 पैसे से लेकर 2 रू0 प्रति स्लिप्स तक होती है।
बिजाई का समय:
यदि सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध होतो लेमन घास की बिजाई वर्ष में कभी भी ज्यादा गर्मी के समय को छोड़कर की जा सकती है। परन्तु सर्वाधिक उपयुक्त समय है- फरवरी-मार्च तथा जुलाई - अगस्त माह। ऐसा देखा गया है कि अन्य महीनों की अपेक्षा फरवरी-मार्च में लगाई गई फसल से प्रथम वर्ष में 20 प्रतिशत ज्यादा पैदावार मिलती है।
बिजाई की विधि:
लेमनग्रास की बिजाई हेतु इसके पुराने पौधो से ली गई स्लिप्स काउपयोग किया जाता है। बिजाई के लिए कोई भी माध्यम प्रयुक्त कियाजा सकता है परन्तु यथासंभव छोटी कुदाल का उपयोग किया जाना ज्यादा उपयोगी होता है। इस प्रकार छोटी कुदाल से 5 से 8 सेमी गहरे गढ्ढे करके इसकी रोपाई कर देनी चाहिए। जड़ो को ज्यादा गहरा नही रोपना चाहिए। अन्यथा जड़े गलकर सड़ सकती है। इससे पौधों का जमाव प्रभावित हो सकता है। स्लिप की रोपाई से पूर्व इसके साथ लगी पत्तिया तथा पुरानी जड़े काट दी जानी चाहिए। गढ्ढे में स्लिप्स इस तरह खड़ी करके रोपी जानी चाहिए जिससे गढ्ढे में स्लिप सीधी खड़ी रहे तथा इसकी जड़े मुडे नही। रोपाई के उपरान्त स्लिप का निचला हिस्सा मिट्टी से पूरी तरह दबा दिया जाना चाहिए। रोपाई के बाद खेत मे पानी छोड़ दिया जाना चाहिए। पौधे से पौधो की दूरी 45 सेमी एवं कतार से कतार की दूरी 60 सेमी होती है।
सिंचाई की आवश्यकता:
यद्यपि एक बार जम जाने (जड़ पकड़ लेने) के बाद लेमनग्रास की फसल को ज्यादा पानी की आवश्यकता नही होती है। फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि भूमि गीली रहनी चाहिए अतः समय≤ पर पानी दिया जाना आवश्यक हेागा। प्रायः गर्मियो के समय 10 दिनों के अंतराल पर तथा सर्दियों के समय 15 दिनो के अंतराल पर सिंचाई की जाना फसल की उचित बढ़ोत्तरी के लिए उपयुक्त होगा।
निराई तथा गुड़ाई की आवश्कता:
लेमनग्रास की फसल में केवल पहली बार ही ज्यादा खरपतवार होती है तथा अगली कटाइयों में खरपतवार की मात्रा घटती जाती है। बिजाई के उपरान्त पहली कटाई से पूर्व हाथ से निराई गुडाई की जाना आवश्यक होगा। प्रत्येक कटाई के उपरान्त हाथ से गुड़ाई की जाना लाभदायक होगा। खरपतवार के नियन्त्रण हेतु फसल की बिजाई से पूर्व प्रति एकड़ 0.5 किग्रा ड्योरान अथवा 250 ग्राम आक्सीफ्लयूरोफेन को जमीन मे डाला जाना भी खरपतवार के नियंत्रण हेतु प्रभावी हो सकता है।
लेमनग्रास की फसल मे होने वाले प्रमुख रोग तथा इसकी कीट-पंतगो से रक्षा:
लेमनग्रास की फसल को ज्यादा रोग नही होते तथा यह कीट-पतंगो से भी अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित रहती है, फिर भी इसकी फसल की निम्नलिखित बीमारियों/कीट पतंगो से सुरक्षा की जाना आवश्यक होगा-

1: दीमक: जिन क्षेत्रो में सिंचाई की कम व्यवस्था होती है। वहां दीमक का प्रकोप प्रायः हो सकता है, जिससे पौधे सूख सकते है दीमक से सुरक्षा के लिए विजाई से पूर्व उपरोक्तानुसार खेत मे बी0एच0सी0 पाउडर डाला जाना उपयुक्त रहेगा। इसके अतिरिक्त यदि खेत में नीम की खली पीस कर डाली जाए तो वह भी पौधों को दीमक के प्रकोप से मुक्त रख सकती है।

2: चूहों का प्रकोप: चूहों द्वारा भी कई बार इसकी फसल को नुकसान पहुचाया जाता हैं चूहे इसकी नाजुक पत्तियों तथा शिखाओं को कट लेते हे जिससे इसकी पत्तियों का काफी नुकसान हो सकता है। चूहो से निपटने के लिए किसी भी चूहे मार दवा का प्रयोग किया जा सकता है।

3: शूट फ्लाई: शूट फ्लाई का लेमनग्रास की फसल पर प्रभाव प्रायः दक्षिण भारतीय राज्यों में देखा जाता है। इस कीट की सुन्डी पौधे के तने के भीतर घुस कर उसे काट कर खाती है। इससे पौधे को उचित मात्रा भोजन नही मिल पाता तथा पौधेकी बढ़वार रूक जाती है। प्रायः पौधे में 5-6 पत्तियां आने पर अथवा नये पौधे के रोपण के 5-6 सप्ताह के बाद इसका प्रकोप ज्यादा हाते देखा गया हैं इस कीट से पौधे की सुरक्षा हेतु डाईमैथाइट 30- ई0सी0 का 100 से 150 मिली लीटर प्रयोग अथवा फोरेट 10-जी का 4 से 5 किग्रा अथवा कार्बोफ्यूरान 3-जी का 4 से 5 किग्रा प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करने से फसल की इस बीमारी से सुरक्षा की जा सकती है।

4: व्हाइट फ्लाई: यह कीट लेमनग्रास के पौधे को प्रायः फरवरी से मई के बीव में ज्यादा नुकसान पहुचांता है। यह कीट प्रायः झुण्डों में रहते है तथा लेमनग्रास की पत्तियो के नीचे अत्याधिक मात्रा में रस चूस कर फसल की बृद्धि को रोकते है। इस कीट से फसल की सुरक्षा करने के लिए फाॅस्फामिडान अथवा डाइमेथेइट के तैलीय कीटनाशक का 200 से 250 मिली लीटर प्रति एकड की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कियाजाना चहिए।
फसल की कटाई:
प्रथम बिजाई से लगभग 100 दिनों के बाद यह फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इस समय फसल को भूमि की सतह से 10 से 15 सेमी ऊपर जहाॅ से पत्ते शुरू होते है से काटा जाना चाहिए। कटाई के उपरान्त फसल पुनः बढने लगती है। तथा 60 से 90 दिनों में पुनः कटाई के लिये तैयार हो जाती है। प्रत्योक 60-70 दिन के अंतराल पर लेमनग्रास की आगामी कटाइयां ले ली जाती है इस प्रकार एक बार फसल लगा देने के उपरांत कम से कम आगामी पांच सालो तक यह क्रम चलता रहता है। लेमनग्रास की प्रतिवर्ष ली जा सकने वाली कटाइयो की संख्या भूमि की उर्वरता देखरेख तथा पानी की उपलब्धता आदि पर निर्भर करती है, फिर भी समस्त परिस्थितियां अनुकूल होने की स्थिति में वर्ष में प्रायः 4 से 5 तक कटाइयां ली जा सकती है। जबकि यदि भूमि ज्यादा उपजाऊ न हो तथा पानी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो तो वर्ष में अधिकतम तीन तक कटाइयां ही ली जा सकेगी। प्रायः लेमनग्रास के पौधो का जुट्टा निरन्तर बढता जाता हैं इसका फैलाव होता जात है जिससे आगामी कटाइयों में फसल से मिलने वाली हर्ब में निरंतर बृद्धि होती जाती है। इस प्रकार एक बार लगा देने पर यह फसल पांच साल तक उत्पादन निरन्तर उत्पादन देती है तथा इन पांच वर्षो में इसकी प्रतिवर्ष तीन से पाच तक कटाइयाॅ ली जा सकती है।
पत्तियो से तेल निकालना:
लेमनग्रास कि पत्तियो से तेल निकालने के लिये इसकी पत्तियों (शाक) का आसवन किया जाता है। इस कार्य हेतु वाष्प आसवन अथवा जल आसवन विधि का उपयोग किया जाता हैं। प्रायः फसल काटने के उपरांत उसे कुछ समय तक मुरझा ने हेतु खेत में ही अथवा किसी छायादार स्थान पर रख दिया जाता है तदोपरान्त उसका आसवन किया जाता है। यद्यपि वर्तमान में चल रही प्रक्रियाओं में आसवन हेतु घास आसवन टैक में डाल दी जाती है, परन्तु यदि इसे छोटे-छोटे टुकड़ो में काटकर आसवन हेतु डाला जाए तो इससे प्राप्त होने वाले तेल मी मात्रा बढ़ सकती है। आसवन की प्रक्रिया लगभग से तीन घण्टों में पूरी हो जाती है।
फसल से प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा:
लेमनग्रास की फसल से उत्पादित होने वाले तेल की मात्रा भूमि उर्वरा शक्ति, क्षेत्र की जलवायु, खेती की देखरेख, लेमनग्रास की लगाई गयी प्रजाति तथा घास काटने के समय पर ज्यादा निर्भर करती है। परन्तु वर्तमान में लेमनग्रास की खेती के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता हे कि प्रथम वर्ष में लेमनग्रास की फसल से वर्ष भर मे चार कटाइयों में औसतन 100 किलो ग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है, जोकि आगामी वर्षो मे बढ़ाया जाता है। प्रायः पत्तियों के अनुपात में 0.5 प्रतिशत से एक प्रतिशत तक तेल की मात्रा प्राप्त होती है।
लेमनग्रास की विभिन्न प्रजातियों/किस्में:
लेमन ग्रास की अनेक प्रजातिया/किस्में विभिन्न संस्थाओं द्वारा विकसित की गई है, जिसमें प्रमुख है प्रगति,प्रमाण, कावेरी, कृष्णा आर0आर0एल0-16, जी0आर0एल0-1 इत्यादि।
लेमनग्रास अथवा नींबू घास
सिट्रोनेला

सिट्रोनेला

सिट्रोनेला जिसका वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगान विन्टेरियेनस (Cymbopogon Winte-rianus) है, "पोएसी" कुल की एक बहुवर्षीय घास है। इसके पत्तों को आसवित करके सिट्रोनेला तेल प्राप्त किया जात है। इस तेल के प्रमुख रासायनिक घटक होते है- सिट्रोनेलल, सिट्रोनेलोल, जिरेनियाल, सिट्रोनेलोल एसिटेड आदि। जावा सिट्रोनेला के तेल में 32 से 45 प्रतिशत सिट्रोनेलाल, 12 से 18 प्रतिशत जिरेनियाल, 11 से 15 प्रतिशत सिट्रोनेलोल,3.8 प्रतिशत जिरेनायल, एसिटेट 2-4 प्रतिशत सिट्रोनेलाइल एसिटेट 2-5 प्रतिशत लाइमोनीन 2-5 प्रतिशत एलीमोल तथा अन्य एल्कोहल आदि पाए जाते है। इन्ही रासायनिक घटको के कारण इसका उपयोग साबुन तथा क्रीम निर्माण में सुगंध हेतु तथा आडोमास, एंटीसेप्टीक क्रीमो तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण हेतु किया जाता है। इन उपयोगो के साथ-साथ इसकी विभिन्न सुगंधीय रसायनों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसी प्रकार की एक घास "सीलोन सिट्रोनेला" भी है। जिसके पत्तों से सीलोन सिट्रोनेला तेल प्राप्त होता है। सीलोन सिट्रोनेला तेल की अपेक्षा जावा सिट्रोनेला तेल को ज्यादा उत्तम माना जाता है। क्योकि इसमें जिरेनियाल की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। वर्तमान में विश्व भर में उत्पादित होने वाले तेल में अधिक मात्रा जावा सिट्रोनेला तेल की ही है। यद्यपि देखने में यह घास भी जामारोजा तथा लेमनग्रास जैसी ही है। परन्तु इसके जुट्टे अपेक्षाकृत ज्यादा भरे हुए तथा ज्यादा फैले हुए होते है इसके पौधों की ऊचाई अपेक्षाकृत कम होती है। पामारोजा तथा लेमनग्रास की तुलना में इसकी पत्तियां अपेक्षाकृत ज्यादा चैड़ी तथा स्लिप्स भी अपेक्षाकृत ज्यादा मोटी होती है।

वर्तमान में भारत में सिट्रोनेला की खेती मुख्यतया आसाम, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, गोवा तथा मध्यप्रदेश में हो रही है। विभिन्न औद्योगिक एवं घरेलू उपयोगों में प्रयुक्त होने के कारण सिट्रोनेला आॅयल के बाजार में गत कुछ वर्षो मे काफी बढ़ोत्तरी हुई है। जिससे देश के विभिन्न भागों में इसकी व्यवसायिक स्तर पर खेती प्रारम्भ हुई है। वर्तमान मे हमारे देश के विभिन्न भागों में इसकी व्यापक स्तर पर सफलता पूर्वक खेती की जा रही है। जिसके भविष्य में अधिक प्रसार की संभावनाएं है।
सिट्रोनेला की कृषि :
खेती हेतु उपयुक्त भूमि तथा जलवायु:
सिट्रोनेला की फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी तथा दोमट मिट्टी जिसका पी0एच0 मान 6 से 7.5 के बीच हो, उपयुक्त मानी जाती है। बलुई- दोमट तथा दोमट के अतिरिक्त यह फसल विभिन्न अम्लीय ;।बपकपबद्ध मिट्यिों जिनका पी0एच0 मान 5.8 तक हो तथा क्षारीय मिट्यिों (जिनका पी0एच0 मान 8.5 तक हो) में भी उगाई जा सकती हैं ऐसे क्षेत्र जिनका तापमान 9 डिग्री से 35 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच हो तथा आर्द्रता 70-80 प्रतिशत तक हो, यह फसल सफलता पूर्वक उगाई जा सकती है।
भूमि की तैयारी:
लेमनग्राम तथा पामारोजा की तरह सिट्रोनेला की फसल एक बार लगा देने के उपरान्त पांच वर्ष तक अच्छी पैदावार देती है। अतः प्रथम विजाई के पूर्व खेत को अच्छी तरह तैयार करना आवश्यक होता है। इसके लिये दो तीन बार क्रास तथा गहरी जुताई करके खेत को तैयार किया जाता है। यदि गोबर की अच्छी तरह से सड़ी हुई खाद अथवा कम्पोस्ट खद उपलब्ध हो तो अंतिम जुताई के समय 8 से 10 टन गोबर की खद अथवा कम्पोस्ट खाद प्रति एकड़ खेत में टच्छी तरह मिला दी जानी चाहिए। फसल की दीमक आदि से सुरक्षा की दृष्टि से अन्तिम जुताई के समय लगभग 10 किग्रा बी0एच0सी0 पाउडर प्रति एकड़ खेत में अच्छी तरह बिखेरना लाभकारी होता है।
बीज/प्लांटिग मेटेरियल:
लेमनग्रास की तरह सिट्रोनेला की बिजाई भी स्लिप्स से की जाती है। स्लिप्स बनाने के लिए एक वर्ष अथवा उससे पुरानी फसल के जुट्टे निकालकर उनमें से एक एक स्लिप अलग-अलग कर ली जाती है। तदुपरान्त प्रत्येक स्लिप के ऊपर के पत्ते काट दिए जाते है तथा नीचे के सूखे हुए पत्ते अलग कर दिये जाते है। इसक साथ नीचे की लंबी-लंबी जड़े भी काट दी जानी है। इस प्रकार से सिट्रोनेलाकी स्लिप्स तैयार हो जाती है। स्लिप्स लगाते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि औसतन 80 प्रतिशत तक ही स्लिप्स लग पाती है। तथा शेष स्लिप्स मर जाती है। जिनकों समय से प्रतिस्थापित कर देना चाहिये।
बिजाई की विधि:
सिट्रोनेला की फसल की बिजाई के लिए जुताई- अगस्त अथवा फारवरी मार्च का समय सर्वाधिक उपयुक्त रहता है। लाइनों में 60 X 30 सेमी की दूरी पर लगाया जाना उपयुक्त रहता है। बिजाई के उपरान्त खेत में पानी छोड़ देना चाहिए। एक एकड़ के क्षेत्र में लगभग 22,000 स्लिप्स की आवश्यकता हाती है। बिजाई से लगभग 2 सप्ताह के भीतर स्लिप्स से पत्तियां निकलनी शुरू हो जाती है। प्रायः 20 प्रतिशत पौधे मर जाते है। तो एक महिने के उपरान्त उसके स्थान पर नई स्लिप्स लगा दी जानी चाहिएं।
सिट्रोनेला की प्रजातीया:
जावा सिट्रोनेला की प्रमुख प्रजातियां है- मंजूषा, मंदाकिनी, बायो-13 आदि। इसमें से बायो -13 टिश्यू कल्चर विधि द्वारा विकसित की गई प्रजाति है।
पानी की आवश्यकता:
सिट्रोनेला की जड़े ज्यादा गहरी होने के कारण तथा शाकीय फसल होने के कारण सिट्रोनेला की फसल को काफी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। यद्यपि पानी/ सिंचाई की आवश्यकता भूमि की प्रकृति पर निर्भर होती है। परन्तु प्रायः गर्मियों में प्रत्येक 10 दिन के अन्तराल पर तथा सर्दियों के समय में प्रत्येक 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई किया जाना फसल की सही बढ़वार के लिये उपयुक्त होता है। इस प्रकार फसल को वर्ष भर में औसतन 25-30 सिंचाईयो की आवश्यकता होती है।
निराई गुड़ाई तथा खरपतवार नियंत्रण:
सिट्रोनेला की फसल के खरपतवारों को नियंत्रण करनरा अत्यधिक आवश्यक होता है। विशेष रूप से फसल की बिजाई के प्रथम देढ़ माह की अवधि में फसल में खरपतवार नही पनपने देना चाहिये। अतः प्रथम बार में हाथ से निराई गुड़ाई किया जाना आवश्यक होगा। इसके उपरान्त फसल की प्रत्येक कटाई के उपरान्त हाथ से गुड़ाई की जानी चाहिए। वैसे आगे की कटाइयों के पश्चात प्रायः खरपतवार कम होने लगती है। खरपतवार के नियंत्रण हेतु 200 लीटर पानी के साथ 400 ग्राम ड्यूरान का स्प्रे करना भी खरपतवार के नियंत्रण हेतु उपयोगी पाया गया हैं। इसका स्प्रे पौधों की बिजाई के समय किया जाना चाहिए। फसल की प्रत्येक कटाई के उपरान्त यह स्प्रे पुनः किया जा सकता है।

प्रमुख विमारीया तथा किट-पतंगे:

सिट्रोनेला की फसल में होने वाली प्रमुख बीमारिया तथा इसकों हानि पहुचाने वाले प्रमुख किट-पतंगे निम्नानुसार है:-

1: तना छेदक कीड़ा: तना छेदक कीट का प्रकोप सिट्रोनेला की फसल पर प्रायः अप्रैल से जून तक के महीनों में अधिक होता है। यह कीट सिट्रोनेला के तने से लगी पत्तियो पर अण्डे देती है जिससे जो सुन्डी निकलती है वह तने के मुलायम भाग से पौधे में प्रवेश करती है। इससे पौधों की पत्तियां सूखने लगती है तथा पौधो की बृद्धि थम जाती है। सिट्रोनेला के खेत में इस बीमारी के प्रकोप के फलस्वरूप पत्तियां सूखी हुई दिखाई देती है जिनको खीचने पर उसके निचले भाग में सड़न तथा छोटे-छोटे कीट भी दिखाई पडते है। इसे ‘डेड हर्ट’ भी कहा जाता है। इस कीट से छुटकारा पाने के लिए निराई गुड़ाई के उपरान्त 4 से 6 किग्रा प्रति एकड़ की दर से 10- जी अथवा कार्बोफ्यूरान 3 -जी का छिड़काव किया जाना चाहिये।

2: पत्तों का पीला पड़ना: पत्ती का पीला पड़ना एक प्रमुख समस्या है जोकि इस फसल के संदर्भ में देखी गई है। इस समस्या के सामाधान के लिए फेरस सल्फेट तथा कीटनाशकों का छिड़काव किया जाना भी आवश्यक है।

3: झुलसा रोग:- विशेष रूप से बरसात के मौसम मे सिट्रोनेला के पौधों पर फफूंदी का आक्रमण देख गयाहै। इससे पौधे के पत्ते सूख जाते है तथा काले पड़ जाते है। इससे बचाव हेतु 10-15 दिन के अंतराल से डायथेन एम-45 नामक फफूंदी नाशक का छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल से किया जाना उपयोगी रहता है।
फसल की कटाई:
एक बार लगा देने के पश्चात सिट्रोनेला की फसल से पांच वर्ष तक पर्याप्त तेल उत्पादित होता है। इसके उपरान्त तेल की मात्रा घटने लगती है। बिजाई के लगभग 120 दिन के उपरान्त यह फसल पहली कटाई के लिए तैयार हा जाती है। इसके पश्चात प्रत्येक 75 से 90 दिनों मेंफसल की आगामी कटाइयंा ली जा सकती है। इस प्रकार लगातार 5 वर्ष तक इस फसल की प्रति वर्ष 3 से 4 फसले ली जा सकती है। प्रायः तेल की मात्रा पहले वर्ष की तुलना में दूसरे वर्ष में काफी बढ जाती है। जब कि आगामी वर्षो-तीसरे, चैथे तथा पांचवे वर्ष में यह लगभग एक जैसी ही रहती है। पांचवे वर्ष के उपरान्त तेल की मात्रा घटने लगती है। फसल की कटाई भूमि से लगभग 15 से 20 सेमी ऊपर से की जानी चाहिए।
पत्तियों का आसवन:
सिट्रोनेला की पत्तियों का वाष्प आसवन अथवा जल आसवन विधि द्वारा तेल उत्पादित किया जाता है। प्रायः 3 से 4 घण्टे में पत्तियों केएक बैच कीआसवन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। यह आसवन उसी आसवन संयन्त्र से किया जा सकता हैं जिससे मेन्था अथवा लेमनग्रास का तेल निकालते है।
पामरोजा

पामरोजा

रोशा घास, जिसे पामरोजा के नाम से जाना जाता है, का वानस्पतिक नाम ‘‘सिम्बोपोगाॅन मारटिनी’’ है। यह घास कुल की एक महत्वपूर्ण बहुवर्षीय संगन्धित तेल धारक फसल है। इसके तेल में 75 से 90 प्रतिशत तक जिरेनियाॅल तत्व पाया जाता है। जिससे इसके महत्व का आभास होता है। इसकी उपलब्धता कम वर्षा वाले जंगली क्षेत्रों मुख्यतः मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक व सामान्य से अधिक वर्षा वाले कुछ उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में होती है। ‘‘पुराना बरार क्षेत्र’’ इस फसल के लिये हमेशा उल्लेखनीय रहेगा। इस घास से प्राप्त तेल को बाजार में ‘‘मेहदी के तेल’’ के नाम से भी जाना जाता है। इस तेल का उपयोग मुख्यतः अगरबत्ती, सुगन्धित साबुन सुगन्धित प्रसाधन सामग्री के निर्माण तथा तम्बाकू को सुगंधित करने में होता है। गर्म तासीर के कारण इसके तेल की मालिश घुटनों तथा शरीर के अन्य जोड़ो के दर्द में किया जाता है। इसके साथ-साथ यह मच्छर भगाने वाले रीपेलैन्टस में भी प्रयुक्त होता है। दवाइयों मे भी इसके कई उपयोग है। यद्यपि इसका अधिकांश भाग अभी भी जंगलो से ही प्राप्त होता है परन्तु इसकी नियमित तथा निरन्तर बढती जा रही मांग के कारण अब इसकी विधिवत खेती भी प्रारम्भ हो चुकी है तथा यह काफी सफल सिद्ध हो रही है। इस फसल पर यद्यपि भारतवर्ष का प्रमुख आधिपत्य है परन्तु यह फसल इण्डोनेशिया, ग्वाटेमाला, हांडुरस, पूर्वी अफ्रीका, क्यूबा, तथा ब्राजील में भी पैदा की जाती है।

पामारोजा की कृषि तकनीक:
जलवायु एवं भूमि: ऐसे क्षेत्र जहा वर्ष में तापक्रम 10 से 40 डिग्री सेल्सियस हो, तथा वर्षा लगभग 100 सेमी व धूप प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध हो, पमारोजा की खेती के लिये उपयुक्त होते है। अधिक वर्षा, सर्दी तथा पाला व छांवदार क्षेत्र इसकी उत्तम काश्त हेतु उचित नही होते है। रेतीली दोमट, दोमट तथा मध्यम काली मिट्टी जिसमें उत्तम जल निकास व्यवस्था हो इसकी काश्त के लिये उत्तम है। यह घास पहाड़ी क्षेत्रों में जहां मिट्टी कम तथा मौरम अधिक हो, वहा भी पैदा की जा सकती है, जो भूमि सुधार में भी सहायक होती है।
बीज की मात्रा तथा पौध शाला की तैयारी:
एक एकड़ खेत में प्रत्यारोपण करने हेतु 1.5 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। अधिक पैदावार हेतु गोतिया रोशा की उन्नत जाति आई0डब्ल्यू0 - 31245 तथा सी0आई0 80-68 का बीज उपयोग में लाया जाना लाभकारी होगा। मई के प्रथम अथवा द्वितीय सप्ताह के करीब 20 सेमी जमीन से ऊची उठी हुई क्यारियों में अकार 1 ग 10 मीटर गोबर खाद की समुचित मात्रा मिलानी चाहिये। प्रत्येक क्यारी में 20-25 ग्राम बी0एच0सी0 10 प्रतिशत चूर्ण अच्छी तरह अवश्य मिलायें और 10 सेमी दूर कतारे में 1-2 सेमी गहराई पर बीज बोये। बीज को गोबर खाद युक्त बारीक मिट्टी से इस प्रकार ढके कि बीज दिखता रहे। प्रतिदिन क्यारियों की सिंचाई करे और पौधशाला को सीधी धूप से बचाये। लगभग 45-50 दिन के उपरान्त जब पौधे लगभग 15-20 सेमी ऊंचे हो जाएं तो उन्हे जड़ सहित निकालकर रोपाई के काम में लेना चाहिए।
भूमि की तैयारी:
वर्षा से पूर्व खेत की एक या दो बार हल से गहरी जुताई कर अन्तिम बखरनी से पूर्व 8-10 टन गोबर की खाद देना चाहिए। अन्त में पाटा चलाकर खेत ऐसे समतल करना चाहिए कि पानी खेत में रूके नही।
उर्वरक खाद एवं जैविक खाद का उपयोग:
अधिक उपज के लिए असिंचित अवस्था मे प्रति एकड़ 12 किलाग्राम नत्रजन (दो बराबर भाग में), इतना ही फासफोरस व 8 किलोग्राम पोटाश प्रत्यारोपण पूर्व नालियों या कतारों में दे। नत्रजन का बचा हुआ दूसरा भाग (6 किलो) प्रत्यारोपण के 30-40 दिन बाद पौधों की जड़ो के पास दें। सिंचित अवस्था में कुल 16-24 किलो नत्रजन (4 किलो प्रत्यारोपण पर) व 8 किलोग्राम फासफोरस तथा 4 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ प्रत्यारोपण के समय नालियों (कतारो) में दे। बाकी नत्रजन की आधी मात्रा दो भागों में बांटकर प्रथम मात्रा प्रथम कटाई के बाद तथा दूसरी मात्रा द्वितीय कटाई के बाद दें। विभिन्न क्षेत्रों में किये गये प्रयोगो से यह सिद्ध हो चुका है कि एजोटोवेक्टर कल्चर का उपयोग करने से राशा घास तथा उसके तेल की उपज में आशातीत वृद्धि प्राप्त हुई है। प्रति एकड़ 1 किलोग्राम एजोटोवेक्टर को प्रत्यारोपण से पूर्व पौधशाला वाले पौधों की जड़ों या पुराने पौधों से बनाये गये जड़दार पौधो की जड़ो में लगाकर अथवा प्रत्यारोपण के बाद परन्तु एक माह की अवधि के अंदर अंदर 1 किलोग्राम कल्चर को 20 किलोग्राम बारीक गोबर की खाद में मिलाकर खड़ी फसल में भूमि पर विखेरकर देने से उपज में बृद्धि होती है। एजोटोबेक्टर देने से उपज में वृद्धि होती है। एजोटोबेक्टर कल्चर का उपयोग करने से नत्रजन उर्वरक की आधी मात्रा की बचत होती है।
रोपाई:
पौधशाला या पुराने पौधो से बनाये गये जडदार कूचों को जड की तरफ से 10-20 मिनट तक 0.1 प्रतिशत बावस्टीन घोल में डुबाने के उपरान्त पौधो को 45 सेमी दूर बनी हुई 15-20 सेमी गहरी कतार में पौधे से पौधे की दूरी 15-20 सेमी रखते हुए प्रत्यारोपित करें। यद्यपि पौधशाला वाले पौधों को प्रत्येक स्थान पर एक स्वस्थ पौधा तथा पुराने पौधों के जड़दार कूचों के 2-3 कूचे प्रत्येक स्थान पर रोपित करना लाभकारी होता है। परन्तु नर्सरी पौध लगाने से प्रति इकाई सही पौध संख्या प्राप्त होती है। किसी कारणवश यदि कुछ पौधे जड़ न पकड़ पाये हों तो 15 दिन के अंदर नये पौधों से रिक्त स्थान भर दें। रोपाई का कार्य बरसात मंे 8-10 सेमी वर्षा हो जाने के बाद ही करना चाहिए।
पामारोजा के साथ ली जा सकने वाली अंर्तवर्तीय फसलें:
प्रयोगों से यह विदित हुआ है कि मध्यम अवधि (140-160 दिन) की अरहर/तुवर की एक पंक्ति, पामारोजा की 2 पंक्तियों के बीच मंे समानान्तर पौध दूरी पर बनाने पर बनाने से पामारोजा घास और उसके तेल कीउपज पर कोई्र विपरीत असर नही होता है, अपितु अरहर की एक अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। और भूमि की उर्वरक शक्ति भी बढती है जिसका लाभ पमारोजा की आगे आने वाली फसल को होता है। पामारोजा के साथ सिर्फ प्रथम वर्ष में तुअर की अंतरवर्ती फसल सम्भावित है अन्य कटाईयों में यह संभव नही हो पाता।
पामरोजा की उन्नत किस्में:
परम्परागत रूप से पमारोजा की दो किस्में पाई पाती है- मोतिया तथा सोफिया। किन्तु इनके साथ-साथ पामरोजा की तीन उन्नत किस्में-‘तृष्णा’, ‘तृप्ता’, तथा पी0आर0सी0-1 भी विकसित की गई हैं जो किसानों में काफी लोकप्रिय हुई है।
सिंचाई:
वर्षा आधारित फसल में अकस्मात वर्षा बंद हो जाने पर सिंचाई अवश्य करें, अन्यथा नहीं। सिंचित अवस्था में 12 वर्ष में पामारोजा की 2 या 3 कटाइयां प्राप्त की जा सकती है। प्रथम कटाई (अक्टूबर-नवम्बर) के बाद सर्दियों में 20 दिन के अंतराल से तथा गर्मियों मे 12-15 दिन के अन्तराल से सिंचाई करना आवश्यक होता है।
निराई-गुड़ाई:
प्रतिवर्ष पामारोजा में 2-3 निराई गुड़ाई करके खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। प्रत्येक कटाई के बाद कतारों के बीच में हल चलाकर नत्रजन की बताई गई मात्रा दी जानी चाहिये।
पौध संरक्षण:
सामान्यतः पामारोजा पर कीट-पंतगों तथा बीमारियों का प्रकोप नही होता है, परन्तु अधिक वर्षा होने पर फफूंदी रोग के धब्बे पत्तियों तथा तनों पर दिखाई देने लगते है, जिनकी रोकथाम हेतु डायथेन जेड-78 या डायथेन एम-45 के 0.3 प्रतिशत घोल का पौधो के ऊपर 8-10 दिन के अन्तराल से 2-3 छिड़काव करना चाहिये।
फसल की कटाई व ढुलाई:
फसल में अधिकाधित तेल प्राप्ति हेतु पौधों में पूर्णरूप से पुष्पक्रम आने पर तथा बीज बनने की प्रक्रिया शुरू होते ही भूमि से 10-15 सेमी की ऊंचाई से फसल काटकर सम्पूर्ण फसल की छोटी -छोटी गंजीयां बनाकर छांयादार ठंडी जगह में एकत्रित कर लेनी चाहिये । एक बार रोपड़ के उपरान्त असिंचित अवस्था में पमारोजा की प्रतिवर्ष एक कटाई माह अक्टूबर - नवम्बर मे लगभग 8-9 वर्ष तक मिलती रहती है, जबकि सिंचित अवस्था में प्रति 2 या 3 कटाइयां 3-4 वर्ष तक प्राप्त होती है।
आसवन:
पामारोजा में सबसे अधिक मात्रा में तेल इसके पुष्पकंुजो व पत्तियों में पाया जाता है तथा इसकी कड़ियों में तेल नही के बराबर होता हैं इस प्रकार सम्पूर्ण पौधे केआधार पर तेल की उपलब्ध मात्रा लगभग 0.5 से 0.6 प्रतिशत होती है। प्रथम वर्ष की असिंचित एवं सिंचित फसल में पौधों जुट्टो का अपेक्षाकृत कम फैलाव होने से फसल कमजोर रहती है अतः तेल की औसतन मात्रा क्रमशः 12-16 किलोग्राम तथा 20-30 किलोग्राम प्रति एकड प्राप्त होती है। जो आने वाले वर्षो तथा भविष्य की कटाईयों में बढ़कर असिंचित एवं सिंचित अवस्थाओं में क्रमशः 20-25 किलोग्राम तथा 40-50 किलोग्राम प्रति एकड़ प्रति वर्ष प्राप्त होती है। इसके तेल का वर्तमान में औसत मूल्य 700 रू0 प्रति किलोग्राम है।
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