लेमनग्रास अथवा नींबू घास
लेमनग्रास अथवा नीबू घास, जिसका वैज्ञानिक नाम "सिम्बोपोगान फ्लेक्सुओसस" ;ब्लउइवचवहवद थ्समगनेवेनेद्ध है, सम्पूर्ण भारतवर्ष में पायी जाती है। इसे चायना ग्रास, पूर्वी भारतीय नींबू घास, मालाबार घास अथवा कोचीन घास के नाम से भी जाना जाता है। इनकी पत्तियों में एक मधुर तीक्ष्ण गंध होती है जिन्हे चाय में डालकर उबाल कर पीने से ताजगी तो मिलती ही है, साथ ही सर्दी आदि से राहत भी मिलती है। तुलसी की तरह अधिकांश भारतीय परिवारों में इसे घरेलू स्तर पर लगाने की परम्परा है। देश के कई भागो में इसकी व्यवसायिक स्तर पर खेती भी हो रही है। वर्तमान में इसकी विधिवत खेती केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आसाम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश एंव महाराष्ट्र राज्यों में हो रही है।
नींबू घास की व्यवसायिक खेती इसके तेल की प्राप्ति हेतु की जाती है। तेल इसकी पत्तियों को आसवित करके निकाला जाता है। इसके तेल का मुख्य घटक सिट्रल होता है। नीबू घास के तेल में 80 से 90 प्रतिशत तक सिट्रल पाया जात है। सिट्रल नामक तत्व की उपस्थित के कारण ही नीबू घास के तेल मेंसे एक नींबू जैसी सुगन्ध आती है। सम्भवतः इसी नीबू जैसी सुगन्ध के कारण ही इस घास का नाम नींबू घास पड़ा होगा।
लेमन ग्रास के तेल के मुख्य उपयोग:
नींबू घास के तेल के अनेक उपयोग है। इसके तेल मे उपस्थित सिट्रल से अल्फा आयोनोन तथा बीटा आयोनोन तैयार किए जाते है। बीटा आयोनोन को आगे संश्लेषित करके ‘‘बिटामिन ए’’ तैयार किया जाता है जिसका विभिन्न दवाइयों के निर्माण मे काफी अधिक उपयोग होता है। एल्फा आयोनोन से गंध द्रव्य एवं अन्य कई सुगंध रसायन संश्लेषित किये जाते है। मुख्यतः इसका उपयोग उच्च कोटि के इत्रों के उत्पादन, विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधनो, सौन्दर्य सामग्रियों तथा साबुनों के उत्पादन में किया जाता है। अधिकांशतः ‘‘नीबू की खुशबू’’ तथा ‘‘नींबू की ताजगी’’ वाले साबुनो का मुख्य घटक सिट्रल ही होता है। विभिन्न उत्पादों में लेमनग्रास आयल का उपयोग निरंतर बढता जा रहा है। इस कारण इसकी न केवल देशीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मांग निरंतर बढ रही है।
लेमनग्रास की खेती की विधि:
भूमि एवं जलवायु: नींबू घास की खेती के लिए ऊष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है। ऐसे क्षेत्र जहां की जलवायु गर्म तथा आर्द्र हो, जहां पर्याप्त धूप पड़ती होतथा जहां वर्षा 200 से 250 सेमी तक सुवितरित वर्षा हो अथवा सिंचाई के पर्याप्त साधन हो, वे इसकी खेती के लिए आदर्श होते है। यद्यपि यह लेटेराइट मिट्यिों, कम वर्षा वाले, कम उपजाऊ तथा बारानी क्षेत्रों में भी उपजाई जा सकती है। परन्तु यदि परिस्थितिया अपेक्षकृत ज्यादा अनुकूल हो, भूमि उपजाऊ तथा पानी की व्यवस्था पर्याप्त हो, तो बारानी क्षेत्रों के अपेक्षा इन क्षे़त्रों में उपज की मात्रा काफी अधिक बढ़ जायेगी। उदाहरणार्थ उपजाऊ भूमियों में इसकी वर्ष भर में पांच फसलें ली जा सकती है, जबकि अपेक्षाकृत कम उपजाऊ तथा बारानी क्षेत्रों में वर्ष भर में दो से तीन फसलें ही ली जा सकेगी। रेतीली तथा लाल मिट्यिो में इसकी खेती करने के लिए पर्याप्त खाद की आवश्यकता होगी। ऐसे क्षेत्र जहां जल भराव संभावना हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही माने जाते
भूमि की तैयारी:
प्रायः एक बार लगा देने के बाद नींबू घास की फसल पांच वर्ष तक ली जा सकती है। अतः फसल की बिजाई से पूर्व आवश्यक है कि खेत की अच्छी तरह से जुताई की जाए। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से आड़ा-तिरक्षा (क्रास) जुताई करनी चाहिए। मिट्टी को दीमक आदि के प्रकोप से मुक्त रखने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि आखिरी जुताई के समय 5 प्रतिशत बी0एच0सी0 पाउडर 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दिया जाए। इसके उपरान्त पाटा चलाकर खेत को समतल करना चाहियें।
खाद की आवश्यकता:
अच्छी उपज के लिए खेत में पर्याप्त खाद डाला जाना लाभकारी होता है। यदि खेत में गोबर की सड़ी हुई खाद अथवा कम्पोस्ट खाद डाली जाए तो यह सर्वाधिक उपयुक्त होगा गोबर की यह खाद एक तो खेत तैयार करते समय खेत में मिला दी जानी चाहिए, दूसरे इसकी एक खुराक फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत दे दिया जाना चाहिये। फसल की कटाई के उपरांत यह इस प्रकारदिया जाना चाहिए कि खाद पौधों की जड़ो के पास ही डाले। गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट की मात्रा खेत तैयार करते समय 10 टन प्रति एकड़ डाली जाना उपयुक्त हागा। जहां तक रासायनिक खादों के प्रयोग प्रश्न है तो औसतन 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 16 किग्रा फासफोरस तथा 16 किग्रा पोटाश प्रति एकड़ डाले जाने की संतुति इस फसल के लिए की जाती है। इनमें से संपूर्ण फासफोरस, पोटास, तथा नाइट्रोजन का 1/3 भाग खेत तैयार करते समय ही डाल दिया जाना चाहिए जबकि नाइट्रोजन के शेष मात्रा प्रति दो माह मंे अथवा फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत डाले जाने चाहियें।
लेमनग्रास की रोपण सामग्री:
लेमनग्रास की बिजाई स्लिप से ही की जाती है। यह विधि सर्वाधिक उपयोगी, लाभकारी तथा सुविधाजनक भी है। स्लिपे विजाई करने हेतु सर्वप्रथम लेमनग्रास के पुराने पूर्णतयाविकसित पौधों/जुट्टो को उखाड़ कर उनके साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़ो को काट लिया जात है। तदोपरान्त इन जुट्टो मेंसेएक एक स्लिप को अलग कर लिया जाता है। यही स्लिप्स लेमनग्रास के प्लांटिग मेटेरियाल के रूप में प्रयुक्त की जाती है। प्रायः एक एकड़ के क्षेत्र में लगभग 15000 स्लिप्स की आवश्यकता होती है। एक एकड में कितने पौधे/स्लिप्स लगेगी यह मुख्यतः भूमि की उपजाऊ शक्ति तथा कई अन्य कारको पर निर्भर करता हैं। वैसे पौधे से पौधे के माध्यम 2 ग 2 फुट अथवा 1.5 ग 2 की दूरी काफी उपयुक्त मानी जाती है। इस मानक से एक एकड़ में लगभग 12000 से 15000 पौधे लगाए जाते है। इसकी कीमत 50 पैसे से लेकर 2 रू0 प्रति स्लिप्स तक होती है।
बिजाई का समय:
यदि सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध होतो लेमन घास की बिजाई वर्ष में कभी भी ज्यादा गर्मी के समय को छोड़कर की जा सकती है। परन्तु सर्वाधिक उपयुक्त समय है- फरवरी-मार्च तथा जुलाई - अगस्त माह। ऐसा देखा गया है कि अन्य महीनों की अपेक्षा फरवरी-मार्च में लगाई गई फसल से प्रथम वर्ष में 20 प्रतिशत ज्यादा पैदावार मिलती है।
बिजाई की विधि:
लेमनग्रास की बिजाई हेतु इसके पुराने पौधो से ली गई स्लिप्स काउपयोग किया जाता है। बिजाई के लिए कोई भी माध्यम प्रयुक्त कियाजा सकता है परन्तु यथासंभव छोटी कुदाल का उपयोग किया जाना ज्यादा उपयोगी होता है। इस प्रकार छोटी कुदाल से 5 से 8 सेमी गहरे गढ्ढे करके इसकी रोपाई कर देनी चाहिए। जड़ो को ज्यादा गहरा नही रोपना चाहिए। अन्यथा जड़े गलकर सड़ सकती है। इससे पौधों का जमाव प्रभावित हो सकता है। स्लिप की रोपाई से पूर्व इसके साथ लगी पत्तिया तथा पुरानी जड़े काट दी जानी चाहिए। गढ्ढे में स्लिप्स इस तरह खड़ी करके रोपी जानी चाहिए जिससे गढ्ढे में स्लिप सीधी खड़ी रहे तथा इसकी जड़े मुडे नही। रोपाई के उपरान्त स्लिप का निचला हिस्सा मिट्टी से पूरी तरह दबा दिया जाना चाहिए। रोपाई के बाद खेत मे पानी छोड़ दिया जाना चाहिए। पौधे से पौधो की दूरी 45 सेमी एवं कतार से कतार की दूरी 60 सेमी होती है।
सिंचाई की आवश्यकता:
यद्यपि एक बार जम जाने (जड़ पकड़ लेने) के बाद लेमनग्रास की फसल को ज्यादा पानी की आवश्यकता नही होती है। फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि भूमि गीली रहनी चाहिए अतः समय≤ पर पानी दिया जाना आवश्यक हेागा। प्रायः गर्मियो के समय 10 दिनों के अंतराल पर तथा सर्दियों के समय 15 दिनो के अंतराल पर सिंचाई की जाना फसल की उचित बढ़ोत्तरी के लिए उपयुक्त होगा।
निराई तथा गुड़ाई की आवश्कता:
लेमनग्रास की फसल में केवल पहली बार ही ज्यादा खरपतवार होती है तथा अगली कटाइयों में खरपतवार की मात्रा घटती जाती है। बिजाई के उपरान्त पहली कटाई से पूर्व हाथ से निराई गुडाई की जाना आवश्यक होगा। प्रत्येक कटाई के उपरान्त हाथ से गुड़ाई की जाना लाभदायक होगा। खरपतवार के नियन्त्रण हेतु फसल की बिजाई से पूर्व प्रति एकड़ 0.5 किग्रा ड्योरान अथवा 250 ग्राम आक्सीफ्लयूरोफेन को जमीन मे डाला जाना भी खरपतवार के नियंत्रण हेतु प्रभावी हो सकता है।
लेमनग्रास की फसल मे होने वाले प्रमुख रोग तथा इसकी कीट-पंतगो से रक्षा:
लेमनग्रास की फसल को ज्यादा रोग नही होते तथा यह कीट-पतंगो से भी अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित रहती है, फिर भी इसकी फसल की निम्नलिखित बीमारियों/कीट पतंगो से सुरक्षा की जाना आवश्यक होगा-
1: दीमक: जिन क्षेत्रो में सिंचाई की कम व्यवस्था होती है। वहां दीमक का प्रकोप प्रायः हो सकता है, जिससे पौधे सूख सकते है दीमक से सुरक्षा के लिए विजाई से पूर्व उपरोक्तानुसार खेत मे बी0एच0सी0 पाउडर डाला जाना उपयुक्त रहेगा। इसके अतिरिक्त यदि खेत में नीम की खली पीस कर डाली जाए तो वह भी पौधों को दीमक के प्रकोप से मुक्त रख सकती है।
2: चूहों का प्रकोप: चूहों द्वारा भी कई बार इसकी फसल को नुकसान पहुचाया जाता हैं चूहे इसकी नाजुक पत्तियों तथा शिखाओं को कट लेते हे जिससे इसकी पत्तियों का काफी नुकसान हो सकता है। चूहो से निपटने के लिए किसी भी चूहे मार दवा का प्रयोग किया जा सकता है।
3: शूट फ्लाई: शूट फ्लाई का लेमनग्रास की फसल पर प्रभाव प्रायः दक्षिण भारतीय राज्यों में देखा जाता है। इस कीट की सुन्डी पौधे के तने के भीतर घुस कर उसे काट कर खाती है। इससे पौधे को उचित मात्रा भोजन नही मिल पाता तथा पौधेकी बढ़वार रूक जाती है। प्रायः पौधे में 5-6 पत्तियां आने पर अथवा नये पौधे के रोपण के 5-6 सप्ताह के बाद इसका प्रकोप ज्यादा हाते देखा गया हैं इस कीट से पौधे की सुरक्षा हेतु डाईमैथाइट 30- ई0सी0 का 100 से 150 मिली लीटर प्रयोग अथवा फोरेट 10-जी का 4 से 5 किग्रा अथवा कार्बोफ्यूरान 3-जी का 4 से 5 किग्रा प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करने से फसल की इस बीमारी से सुरक्षा की जा सकती है।
4: व्हाइट फ्लाई: यह कीट लेमनग्रास के पौधे को प्रायः फरवरी से मई के बीव में ज्यादा नुकसान पहुचांता है। यह कीट प्रायः झुण्डों में रहते है तथा लेमनग्रास की पत्तियो के नीचे अत्याधिक मात्रा में रस चूस कर फसल की बृद्धि को रोकते है। इस कीट से फसल की सुरक्षा करने के लिए फाॅस्फामिडान अथवा डाइमेथेइट के तैलीय कीटनाशक का 200 से 250 मिली लीटर प्रति एकड की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कियाजाना चहिए।
फसल की कटाई:
प्रथम बिजाई से लगभग 100 दिनों के बाद यह फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इस समय फसल को भूमि की सतह से 10 से 15 सेमी ऊपर जहाॅ से पत्ते शुरू होते है से काटा जाना चाहिए। कटाई के उपरान्त फसल पुनः बढने लगती है। तथा 60 से 90 दिनों में पुनः कटाई के लिये तैयार हो जाती है। प्रत्योक 60-70 दिन के अंतराल पर लेमनग्रास की आगामी कटाइयां ले ली जाती है इस प्रकार एक बार फसल लगा देने के उपरांत कम से कम आगामी पांच सालो तक यह क्रम चलता रहता है। लेमनग्रास की प्रतिवर्ष ली जा सकने वाली कटाइयो की संख्या भूमि की उर्वरता देखरेख तथा पानी की उपलब्धता आदि पर निर्भर करती है, फिर भी समस्त परिस्थितियां अनुकूल होने की स्थिति में वर्ष में प्रायः 4 से 5 तक कटाइयां ली जा सकती है। जबकि यदि भूमि ज्यादा उपजाऊ न हो तथा पानी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो तो वर्ष में अधिकतम तीन तक कटाइयां ही ली जा सकेगी। प्रायः लेमनग्रास के पौधो का जुट्टा निरन्तर बढता जाता हैं इसका फैलाव होता जात है जिससे आगामी कटाइयों में फसल से मिलने वाली हर्ब में निरंतर बृद्धि होती जाती है। इस प्रकार एक बार लगा देने पर यह फसल पांच साल तक उत्पादन निरन्तर उत्पादन देती है तथा इन पांच वर्षो में इसकी प्रतिवर्ष तीन से पाच तक कटाइयाॅ ली जा सकती है।
पत्तियो से तेल निकालना:
लेमनग्रास कि पत्तियो से तेल निकालने के लिये इसकी पत्तियों (शाक) का आसवन किया जाता है। इस कार्य हेतु वाष्प आसवन अथवा जल आसवन विधि का उपयोग किया जाता हैं। प्रायः फसल काटने के उपरांत उसे कुछ समय तक मुरझा ने हेतु खेत में ही अथवा किसी छायादार स्थान पर रख दिया जाता है तदोपरान्त उसका आसवन किया जाता है। यद्यपि वर्तमान में चल रही प्रक्रियाओं में आसवन हेतु घास आसवन टैक में डाल दी जाती है, परन्तु यदि इसे छोटे-छोटे टुकड़ो में काटकर आसवन हेतु डाला जाए तो इससे प्राप्त होने वाले तेल मी मात्रा बढ़ सकती है। आसवन की प्रक्रिया लगभग से तीन घण्टों में पूरी हो जाती है।
फसल से प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा:
लेमनग्रास की फसल से उत्पादित होने वाले तेल की मात्रा भूमि उर्वरा शक्ति, क्षेत्र की जलवायु, खेती की देखरेख, लेमनग्रास की लगाई गयी प्रजाति तथा घास काटने के समय पर ज्यादा निर्भर करती है। परन्तु वर्तमान में लेमनग्रास की खेती के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता हे कि प्रथम वर्ष में लेमनग्रास की फसल से वर्ष भर मे चार कटाइयों में औसतन 100 किलो ग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है, जोकि आगामी वर्षो मे बढ़ाया जाता है। प्रायः पत्तियों के अनुपात में 0.5 प्रतिशत से एक प्रतिशत तक तेल की मात्रा प्राप्त होती है।
लेमनग्रास की विभिन्न प्रजातियों/किस्में:
लेमन ग्रास की अनेक प्रजातिया/किस्में विभिन्न संस्थाओं द्वारा विकसित की गई है, जिसमें प्रमुख है प्रगति,प्रमाण, कावेरी, कृष्णा आर0आर0एल0-16, जी0आर0एल0-1 इत्यादि।